60-70 के दशक में नलिया बाखलकी गलियों में क्रिकेट खेलने वाले जीतू सोनी के स्कूली जीवन की शुरुआत राज मोहल्ला के जिस सरकारी स्कूल में हुई, उसे लोग ‘आशिक मियां के स्कूल’ के नाम से जानते थे। स्कूल का नाम यह नहीं था। भवन की पहचान आशिक मिया से थी। इसलिए यही नाम पड़ गया। आशिक मियां के यहां आए दिन पुलिस की दबिश पड़ती। वजह कभी जुआ होती तो कभी शराब। छापा पड़ता, उस दिन स्कूल की छुट्टी। परेशान होकर जीतू के पिताजी ने उसके छठवीं में आते ही स्कूल बदलवाया और मोहल्ले के बाकी बच्चों के साथ वैष्णव स्कूल में भर्ती करवा दिया। बहुत ही सीधा-सादा, पासिंग मार्क से खुश रहने वाला औसत विद्यार्थी था जीतू। दाल-बाटी का ऐसा शौकीन कि जिस दोस्त के घर बने, उस दिन का जीमना वहीं।
इधर, सराफा मेंं पिता जगजीवन भाई यानी जग्गू भाई प्रतिष्ठित व्यापारी थे। गोल्ड कंट्रोल के जमाने में इनकी दुकान के पास ही लाइसेंस था। खरे सोने जैसा खरा व्यापार। जीतू ने भाइयों के साथ दुकान पर काम सीखा, पर मन कहीं ओर था। 1990 आते-आते उसने दुकान की पेढ़ी चढ़ना कम कर दी। वह साल उसके जीवन का टर्निंग पॉइंट था। पत्रकारिता के साथ दूसरे कारोबार शुरू किए। एक बिल्डर के साथ जुड़ा।
दो-तीन इमारतों में पार्टनरशिप की। फिर माय होम होटल का सौदा किया। यहां से प्रॉपर्टी में दखलंदाजी, कमीशन और धमकी का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ, जो 2020 जनवरी में 64वां केस दर्ज होने तक जारी रहा। इस बीच जिस अखबार में पार्टनर था, उसे खरीदा। एक चैनल चलाया। माय होम होटल में मुंबई के डांस बार जैसे कारनामे किए। हां, इस बीच एक दिन जीतू को अपने स्कूल के दोस्त याद आए। चार-पांच साल पहले वैष्णव स्कूल की 1974 की बैच को सोशल मीडिया से इकट्ठा किया और निपानिया क्षेत्र के फार्म हाउस में पुराने दोस्तों के साथ (एलुमिनाई) यादें ताजा की।
-जैसा स्कूल के समय के दोस्तों और सराफा व्यापारियों ने बताया
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